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एक बहुआयामी व्यक्तित्व – लाला लाजपत राय

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डॉ. अरुण मेहरा

लोग कहते हैं – बदलता है जमाना, बहादुर वो हैं जो जमाने को बदल देते हैं. यह पंक्तियां शेर-ए-पंजाब लाला लाजपतराय जी पर बिल्कुल सटीक बैठती हैं. जिनकी दूरदर्शिता, लगन, त्याग और समर्पण ने भारतीय समाज व राजनीति की दिशा व दशा ही बदल दी. आमतौर पर उन्हें एक राजनीतिक योद्धा एवं स्वंतत्रता संग्रामी के रूप में ही देखा जाता है, जिसने अपने बलिदान से स्वंतत्रता आंदोलन को गति प्रदान की. परंतु वह एक बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी थे. उन्होंने अपनी दूरदृष्टि के अंर्तगत कुछ ऐसी संस्थाओं की आधारशिलाएं रखीं जो आज वटवृक्ष बन सारे समाज एवं राष्ट्र को प्रभावित कर रही हैं. डीएवी शिक्षा संस्थाओं का बीजारोपण हो या पंजाब नैशनल बैंक की स्थापना या फिर मजदूर संघ आईएनटीयूसी का निर्माण – यह सभी लाला लाजपतराय जी की ही देन हैं. यही नहीं समाज सेवा, समाज सुधार, स्वदेशी व स्व:शासन को उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध हथियार के रूप में भारतीय समाज को संगठित व जागृत करने के लिए किया. गांधी जी के शब्दों में, ‘लाला जी एक संस्था थे.’ ऐसे किसी भी आंदोलन की कल्पना नहीं की जा सकती, जिसमें लाला जी का योगदान न हो. इसी आधार पर भारतीय जनमानस में उन्हें ‘पंजाब केसरी’, ‘शेर-ए-पंजाब’ के नाम से जाना जाता है.

28 जनवरी, 1865 को जिला फिरोजपुर (वर्तमान जिला मोगा) के ढुढीके गांव में पैदा हुए लाला जी का परिवार सही मायनों में सर्वधर्म परंपरा का अनुयायी प्रतीत होता है. जहां उनके पिता मुंशी राधाकृष्ण जो एक अध्यापक थे, माता गुलाब देवी सिक्ख परिवार से हिंदू धार्मिक परंपराओं की धरोहर थीं. दादी जैन धर्म के श्वेतांबर सम्प्रदाय की अनुयायी और खुद लाला जी एक आर्यसमाजी हुए. यहां यह कहना उपयुक्त होगा कि परिवार के इसी वातावरण के चलते उनमें राष्ट्रीय दृष्टिकोण विकसित हुआ.
1886 में वकालत की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने हिसार में वकालत शुरू की. उनकी प्रतिभा के आधार पर सरकार द्वारा उन्हें अतिरिक्त असिसटेंट कमिश्नर के पद की पेशकश की गई, परंतु लाला जी ने इसे ठुकरा देश सेवा व समाज सेवा के मार्ग को चुना. लाला जी की प्रतिभा एक सफल निडर लेखक व विचारक के रूप में तब सामने आई जब 1988 में उन्होंने सर सैय्यद अहमद खान के नाम खुले पत्र उर्दू साप्ताहिक कोहिनूर में प्रकाशित किए. शीघ्र ही उनकी पहचान राष्ट्रीय स्तर पर बन गई. परिणाम स्वरूप इसी वर्ष कांग्रेस ने उन्हें इलाहाबाद अधिवेशन के दौरान विशेष रूप से आमंत्रित व सम्मानित किया. लाला जी का यह मानना था कि भारतीयों के दुखों की जड़ विदेशी शासन में है, इसलिए उन्होंने स्वदेशी व स्वराज की वकालत की. उन्होंने भारतीयों को स्वदेशी शिक्षा संस्थाएं, उद्योग, समाचारपत्र, बैंक इत्यादि स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित किया. डीएवी संस्थाओं की स्थापना इसी कड़ी का हिस्सा है. उन्होंने स्वयं पंजाबी, यंग इंडिया, वंदेमातरम्, द पीपल्ज इत्यादि स्वदेशी समाचार पत्रों को प्रकाशित किया और भारतीयों में जागृति पैदा की. इसी क्रम में उन्होंने स्वदेशी बैंक प्रणाली को प्रोत्साहित किया. उन्होंने 1895 में पंजाब नेशनल बैंक (पहला स्वदेशी बैंक) की स्थापना की. वे 1898 में इसके डायरेक्टर भी बने. उनके प्रयासों के फलस्वरूप पंजाब में लगभग 12 बड़ी स्वदेशी मिलें स्थापित हुईं. आर्थिक क्षेत्र में टेक्सटाइल, सूती, ऊनी, सिल्क, हौजरी, चमड़ा, तेल, कागज इत्यादि स्वदेशी उद्योगों को जबरदस्त बल मिला.

इसके साथ ही उन्होंने 1905 से 1907 में एक व्यापक स्वदेशी जनांदोलन खड़ा कर दिया, जिसमें लोगों में राजनीतिक व आर्थिक जागृति पैदा करने का काम किया. इस आंदोलन के माध्यम से अंग्रेजी वस्तुओं, अंग्रेजी अदालतों, अंग्रेजी प्रशासन व अंग्रेजी शिक्षा संस्थाओं का बहिष्कार किया गया. इसने अंग्रेजी राज्य की चूलें हिला कर रख दीं. इस समय उन्होंने स. भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह के साथ लायलपुर में व्यापक किसान आंदोलन खड़ा किया. इससे भयभीत ब्रिटिश सराकर ने लाला जी को ‘ब्रिटिश साम्राज्य के लिए गंभीर खतरा’ बताते हुए गिरफ्तार कर लिया तथा देश से दूर बर्मा भेज दिया.

स्वयंसेवी कार्यों व स्वयंसेवी संस्थाओं की स्थापना लाला लाजपतराय के लिए सदा प्राथमिकता रही. भारत में उन्नीसवीं सदी के अंत तक 24 भयंकर अकाल व महामारियां घटीं. ब्रिटिश सरकार की उपेक्षा के करण लगभग 3 करोड़ भारतीय काल के ग्रास बने. उन्होंने 1897 में उत्तर भारत, 1896-1899 में राजपूताना, काठीयावाड़, केंद्रीय प्रदेशों में अकालों व 1905 के कांगड़ा के भूकंप में सहायता संस्थाएं शुरू कीं व स्वयं अग्रसर होकर लोगों को संगठित किया तथा समाज सेवा द्वारा भारतीयों में चेतना उत्पन्न की. उन्होंने उत्तर भारत में अनेक अनाथालयों की स्थापना की. ब्रिटिश मिशनरियों द्वारा अनाथ व निर्धन के धर्म परिवर्तन पर रोक लगवाई. अंग्रेज सरकार का यह मानना था कि लाला जी समाजसेवा के माध्यम से लोगों को अंग्रेज सरकार के विरुद्ध जागरुक कर रहे हैं, घृणा पैदा कर रहे हैं व संगठित कर रहे हैं.

समाज सेवा के साथ-साथ लाला जी की भूमिका एक समाज सुधारक के रूप में विशेष स्थान रखती है. भारतीय समाज के कमजोर व क्रमश: अछूत, स्त्रियों व मजदूरों के उत्थान के लिए उन्होंने विशेष प्रयास किए. सन् 1912 में गुरुकुल कांगड़ी कॉन्फ्रेंस में लाला जी ने अछूत वर्ग के उत्थान लिए अपनी जेब से 40,000 रुपए दिए. उनका मानना था कि वह समाज के महत्वपूर्ण एवं अभिन्न अंग है. अंत: राष्ट्रनिर्माण का कार्य दबे कुचले लोगों से ही शुरू होना चाहिए. इस तरह वह स्त्री शिक्षा, विधवा विवाह इत्यादि के प्रबल समर्थक थे. उन्होंने अपनी किताब ‘प्रॉब्लम ऑफ एजुकेशन इन इंडिया’ में लड़कियों की शिक्षा एवं सेहत पर विशेष ध्यान दिया. लाला जी का मानना था कि इन सभी वर्गों के उत्थान का सबसे कारगर रास्ता इनमें शिक्षा का प्रयास है. लाला लाजपत राय तन, मन, धन से समाज व राष्ट्र के प्रति समर्पित थे. जब महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की नीति के विरुद्ध सक्रिय थे तो लाला जी ने निजी तौर पर उन्हें 25000 रुपए सहायतार्थ भेजे. वास्तव में उनके भारत आगमन से पहले ही लाला जी भारत में, विशेषकर उत्तर भारतीय समाज में जागृति पैदा कर दी थी. उन्होंने इंडिया होमरूल की स्थापना की, विदेशों में अनेक लेख व किताबें लिखीं. न्यूयॉर्क, टोक्यो व पेरिस में स्थाई रूप से इंडियन ब्यूरोज स्थापित करने की सिफारिश की. वह एकमात्र ऐसे नेता थे जो विश्व में लोकमत निर्माण का महत्व समझते थे.

1920 में भारत आते ही वह संपूर्ण शक्ति से स्वंत्रता आंदोलन में कूद पड़े. उन्होंने करो या मरो का सिद्धांत अपना लिया. उन्होंने 1920 के कांग्रेस सत्र की अध्यक्षता की, जहां असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव पारित किया गया. इसी वर्ष उन्होंने राष्ट्रवादी विचारधारा के अनुरूप उर्दू दैनिक ‘वंदे मातरम्’ समाचार पत्र स्थापित किया व नौजवानों के लिए तिलक स्कूल आफ पॉलिटिक्स की स्थापना की. असहयोग आंदोलन को आक्रामक बनाने के लिए उन्होंने पूरे भारतवर्ष का दौरा किया. दिसंबर 1920 को ब्रिटिश सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया.

जेल से आने के बाद उनकी लोकप्रियता शिखर पर थी. गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन वापिस लेने पर असहमति के कारण उन्होंने कांग्रेस पार्टी से त्यागपत्र दे दिया और स्वराज पार्टी में शामिल हो गए. वर्ष 1925 में वह सैंट्रल लेजिस्लेटिव असैंबली के सदस्य चुने गए व 1926 में इसके डिप्टी लीडर चुने गए. सितंबर 1926 में वह सैंट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली के दो हल्कों से भारी मतों से निर्वाचित हुए. यह उनकी भारतीय जनमानस में लोकप्रियता का पैमाना था.

1927 में ब्रिटिश सरकार ने साइमन कमीशन के भारत दौरे की घोषणा की. लाला जी ने इसका डट कर विरोध किया और एक व्यापक आंदोलन छेड़ दिया. 16 फरवरी, 1928 को लाला जी ने असेंबली में कमीशन को किसी भी प्रकार व किसी भी स्तर का सहयोग न देने का प्रस्ताव पेश किया और इसे भारी समर्थन से पास करवाया. 30 अक्तूबर, 1928 को साईमन कमीशन भारत आया. उनके आगमन के विरोध में लाहौर रेलवे स्टेशन पर लाला जी के नेतृत्व में विशाल प्रदर्शन हुआ. साइमन वापिस जाओ के नारों से आकाश गूंज उठा. पुलिस की सुरक्षा व्यवस्थाएं नष्ट हो गई. भीड़ इतनी अधिक थी कि आंदोलन को काबू पाना असंभव प्रतीत होता था. अंग्रेज पुलिस ने लाला जी को इस आंदोलन का मूल कारण मानते हुए उन पर लाठियों की बरसात कर दी. उनके सिर व छाती पर गंभीर चौटे आईं.
उसी शाम एक विशाल जनसभा का आयोजन किया गया. इसे संबोधित करते हुए लाला जी ने घोषणा की कि प्रत्येक प्रहार जो इस दोपहर उन पर हुआ है, ब्रिटिश साम्राज्य के कफन में अंतिम कील साबित होगा. अन्तत: सिर व छाती पर गंभीर चोटों के परिणाम स्वरूप पंजाब के शेर ने 17 नवंबर, 1928 को अंतिम सांस ली. परंतु पंजाब केसरी लाला लाजपतराय का बलिदान भारतवासियों में वो निडरता, साहस और चेतना पैदा कर गया, जिससे आजादी की ज्वाला और प्रचंड रूप धारण कर गई. भगत सिंह व उनके साथियों ने लाला जी की हत्या का बदला ठीक एक महीने बाद अंग्रेज पुलिस अफसर सांडर्स की हत्या करके लिया.

Source : VSK BHARATH

This article was first published in 2022